
दस महाविद्या
महा के अर्थ है महत् (ब्रह्म, परमात्मा, परमचैतन्य), सर्वोपरि, अतिशय, पूजनीय आदि। विद्या के अर्थ ज्ञान, स्त्री देवता का मंत्र, ज्ञान प्राप्ति का साधन, साधन अर्थात किसी चीज की प्राप्ति का साधन, रूप अर्थात अभिव्यक्त रूप है। विद्यते अनया इति विद्या अर्थात जिससे / जिस साधना से जाना जाता है वह विद्या है। विद्यते इयम् इति विद्या अर्थात जिसको माना जाता है वह विद्या है। सर्वोच्च सत्ता परब्रह्म है जिसे स्त्रीलिंग में पराशक्ति या आद्याशक्ति भी कहते है। ब्रह्म तीनों लिंगों में भी है और तीनों लिंगों से परे भी है तथा यह सर्वोच्च सत्ता है एवं अन्य सभी सत्ताएं इसी पर आधारित है। ब्रह्म संबंधित ज्ञान महाविद्या है। ब्रह्मा की प्राप्ति करने वाला साधन महाविद्या है। वह मंत्र जिनकी साधना करने पर महत् (ब्रह्म या पराशक्ति) की प्राप्ति होती है, महाविद्या है। शून्य में सब कुछ वैसा ही समय रहता है जैसे बीच में वृक्ष। ब्रह्म शून्य है क्योंकि उसमें सब कुछ समय हुआ है और उसके बाहर कुछ भी नहीं है। शून्य से ही सब कुछ पैदा होता है। अतः ब्रह्म निर्गुण भी है और सगुण भी है। निर्गुण से ही सारे गुण निकलते हैं। महाविद्या ब्रह्म संबंधित ज्ञान है। ज्ञान का तात्पर्य किताबी ज्ञान या भौतिक ज्ञान से नहीं अपितु अनुभवात्मक ज्ञान से है। प्रश्न उठता है कि महाविद्या एक ही क्यों नहीं बनाई गई, 10 दस की क्या आवश्यकता है। हम अनंत आकाश को 10 दिशाओं में विभाजित कर मान लेते हैं कि इन 10 दिशाओं में सारा अनंत आ जाता है, यही 10 की संख्या कहने का तात्पर्य है। ब्रह्म के अनंत गुणों को मोटे तौर पर 10 दिशाओं में विभाजित किया जा सकता है। किसी भी महाविद्या से ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है पर उसे ब्रह्म का एक पक्ष ही पता चलेगा।
ब्रह्म के संपूर्ण ज्ञान के लिए 10 महाविद्याओं का सहारा लेना पड़ता है।
- शक्ति/समयशक्ति/विनाशकारी शक्ति (काली),
- मुक्ति/शब्दशक्ति (तारा),
- सौंदर्य/आनंद (त्रिपुर सुंदरी),
- वृहत दृष्टि (भुवनेश्वरी),
- संग्रहीत ऊर्जा/संचित तपशक्ति/तेजस्वी आकर्षण (त्रिपुर भैरवी),
- ग्रंथिभेदन शक्ति (छिन्नमस्ता),
- विरोधी शक्तियों को स्तंभित करना/समाप्त करना (बगलामुखी),
- वाक शक्ति/अभिव्यक्त करने की शक्ति/संगीत (मातंगी),
- सामंजस्य/शांति/वैभव (कमला)
ये सब उसे अनंत या पराशक्ति के प्रमुख गुण या पक्ष हैं।
हम एक उदाहरण के अनुसार समझेंगे कि कभी-कभी कुछ लोग हाथी जो होता है उसके अंगों को ही हाथी समझ लेते हैं जैसा कोई पेट को हाथी समझेगा कोई आंखों को हाथी समझेगा कोई पैरों का हाथी समझेगा कोई साउंड को हाथी समझेगा परंतु इन सभी से मिलकर एक हाथी ही बनेगा बाकी सभी तो उसके हिस्से हैं। इसी प्रकार महाविद्या का चित्रण देवी के रूप में अर्थात शरीर धारी देवी के रूप में किया गया है। प्रत्येक महाविद्या भोग और मोक्ष देने में समर्थ है। यह प्रत्येक महाविद्या का सामान्य कम है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेष (अर्थात औरों से हटकर) यानी की विशेष अधिकार विशेष शक्ति इनके पास मौजूद हैं। जिसके कारण यह महाविद्याएं अलग-अलग हो गई हैं। जिस प्रकार एक सिक्के के दो पहलू होते हैं इस प्रकार ब्रह्म के दो पक्ष हैं। एक है स्थैतिक और आनंदात्मक पक्ष जिसे शिव कहते हैं, दूसरा है गत्यात्मक या क्रियाशील पक्ष जिसे शक्ति कहते हैं।
ऐसा भी कहा जाता है कि कई से लेकर कमला तक 10 महाविद्यायें सृष्टि और व्यष्टि, गति, स्थिति, विस्तार, भरणपोषण, नियंत्रण, जन्म-मरण, उन्नति-अवनति, बंधन तथा मोक्ष की अवस्थाओं की प्रतीक है। काली समय की, तारा शब्द की, त्रिपुर सुंदरी भीतरी सौंदर्य, आनंद, प्रकाश की, भुवनेश्वरी आकाश या स्थान की, भैरवी ऊर्जा, शक्ति, तप को छिन्नमस्ता अवबोधन/बोध/ Perception की, धूमावती शून्यता या अंधकार की, बगलामुखी स्थिरता या स्तंभन की, मातंगी ज्ञान और संगीत की तथा कमला आनंद एवं सौंदर्य की अधिष्ठात्री देवी है।
चंडी प्रकाशन प्रयाग के श्री बालाकल्पतरू अंक में परम पूज्य श्री हिमालय अरण्य जी ने दस महाविद्याओं पर अपने विचार व्यक्त किये है जो अग्रलिखित है — प्रथम महाविद्या महाकाल की शक्तिदायनी महाशक्ति काली एवं द्वितीय महाविद्या अनंत देश की प्रकृति रूपिणी, देश शक्ति तारा है। काली और तारा का तत्व प्रायः एक ही रूप है। देश और काल में जो भिन्नता है, तारा और काली में वही प्रभेद है। काली-तारा दोनों ही काल और देश की आत्मशक्ति से संहारकारिणी है। श्वेत, पीत आदि रंग किस प्रकार कृष्ण वर्ण के विलीन हो जाते है, उसी प्रकार उत्पन्न सभी कालज पदार्थ काली में एवं देशज पदार्थ तारा के विलीन होते है। इसलिए निर्गुणा, निराकार, विश्व हितैषिणी काल–शक्ति काली कृष्णवर्णा है एवं देश शक्ति तारा नीलवर्णा है। आकाश का रंग नीला होता है। ये नित्या, अव्यया और कल्याणदायिनी है। अमृतत्व–युक्त चंद्रकला इनके ललाट में है, देवी के तीन नेत्र है, सूर्य, चंद्र और अग्नि जिनसे सारा जगत दृश्यमान हो रहा है। काल और देश दोनों अनंत है, इसी कारण काली और तारा दिगम्बरी है क्योंकि अनंत को कोई वस्त्र नहीं पहनाया जा सकता है। वस्त्र पहनाने का तात्पर्य है कि वह अनंत नहीं रहा । काल कालशक्ति (समयशक्ति) एवं तारा देश शक्ति हैं। आकाश अनंत है, काल और देश भी अनंत है अतः आकाश काल और देश का प्रतीक है ।
आकाश से सर्व शक्ति संपन्ना चिरयौवना षोडशी की उत्पत्ति है। शक्ति का बल चिरकाल तक अक्षुण्ण रहता है, इसी से उन्हें चिरयौवना षोडशी कहते हैं। षोडशी सभी शक्तियों से श्रेष्ठ है अतः राजराजेश्वरी कहलाई जाती है। इनका पंच देवता भी ध्यान करते हैं क्योंकि इन्हीं आद्याशक्ति से उन्हें शक्ति मिलती है। काली, तारा महाविद्याओं से इस तृतीय महाविद्या की उत्पत्ति है। इसे ऋषियों ने त्रिगुण अनुसार त्रिधा विभक्त कर समष्टि अर्थ में त्रिभुवन ईश्वरी के रूप में दिखाया है।
अतः चतुर्थ विद्या का नाम भुवनेश्वरी है। शक्ति के दो रूप हैं – एक है कोमलकांत और दूसरा है प्रचंड । भुवनेश्वरी देवी जगत स्वरूपा है। जब जगत को देवी का रूप मान लेते हैं तो सूर्य, चंद्र और अग्नि को उनके नेत्रों के रूप में कल्पित किया गया है। भुवनेश्वरी मनोहर रूप में प्रकट हुई है एवं भैरवी चण्डी शक्ति अष्टविध प्रचण्डता में विभक्त होकर तंत्रोक्त अष्टनायिका है । इस प्रकार नाना ध्यानज रूपों का प्रकाश कर शक्तिवाद का प्रचार करता है। कोई भी अन्य विज्ञान शास्त्र शक्ति का इस रूप में विश्लेषण नहीं कर सका है।
अष्टनायिकाभिन्न भैरवी ही भयंकरी मूर्ति छिन्नमस्ता में प्रसारित हुई है, अतः वह परापरा रूप से छठी विद्या मानी गई । छिन्नमस्ता विद्या में पालिकाशक्ति के प्रबल रूप में रहने से वे भैरवी मूर्ति से स्वतंत्र है। सभी रूपों में एक ही भगवती है, तथापि केवल उपासनार्थ विभिन्न ध्यानज रूप की प्रतिमा ग्रहण करनी होती है।
छिन्नमस्ता रूप में पालन शक्ति की प्रधानता किस प्रकार है? इस प्रकार कि उनमें भगवती अन्नपूर्णा के त्रिधा शक्ति-विभाग देखने में आते हैं,
- भोक्त्री
- भोज्य
- भोगरूप
में अन्नपूर्णा जगत में अन्न रूप हुई है। इसी से छिन्नमस्ता स्व देह की तीन रक्त धारा पानकर अन्नपूर्णा को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित कर रही है। कभी जगत भोक्त्री रूप में अपनी जगद देह से भोग्य अन्न का संग्रह करती है, कभी उसी भोग्य अन्न को स्वयं ही भोगकर परिपुष्ट और पालित होती है। इस प्रकार भोक्ता, भोग्य और भोग यही तीन पृथक शक्ति रूप में दिखाई देते है। भोग के न रहने से पुष्टि का साधन नहीं हो सकता। भोग नहीं, तो भाग्य कुछ भी नहीं। पीड़ित के पास भोग्य है, किंतु भोग नहीं है। भोग ही जगत का पालन हेतु है। इसलिए भोगधारा को छिन्नमस्ता में अन्नपूर्णा की जगत-पालन-रीति अति स्पष्ट रूप में दिखाई दे रही है।
जगत का भोग पूर्ण हो जाने पर प्रलय होती है। अतएव छिन्नमस्ता के बाद धूमावती भगवती की घोर प्रलय मूर्ति है। प्रलय काल में जगत का भोग शेष हो जाने पर जरा – जीर्णा भगवती वृद्धा वेश में यमराज के काक ध्वज प्रलयरथ में आरूढ़ होकर क्षुधातुरा, विस्तार – वदना, हाथ में सूर्प लेकर समस्त विश्व को संग्रह कर अपना उदर पूर्ण करती है।